छत्तीसगढ़ खनिज संपदा से भरा हुआ प्रदेश है…..जंगलों नें लोहा-कोयला का भंडार है, तो सोना-हीरा भी है. जल-जंगल-ज़मीन के लिए प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के लिए मूलनिवासी आदिवासियों के लिए चिंता का विषय भी है
रायपुर। राजधानी रायपुर में आदिवासी अस्मिता पर आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन मौके पर उद्योग मंत्री कवासी लखमा कई बड़ी बातें कही. उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ खनिज संपदा से भरा हुआ प्रदेश है. यहाँ के जंगलों नें लोहा-कोयला का भंडार है, तो सोना-हीरा भी है. जल-जंगल-ज़मीन के लिए प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के लिए लेकिन यही संपदा मूलनिवासी आदिवासियों के लिए चिंता का विषय भी है. क्योंकि आदिवासी इन्हीं खनिज संपदा के नाम पर लगातार विस्थापित किए जा रहे हैं. हमें इसके लिए एकजुट होना होगा. जल-जंगल-ज़मीन पर पहला अधिकार आदिवासियों का है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद यहाँ के लाखों आदिवासी अपने ही जंगल से बेदखल होने की कगार पर है. हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार ने अभी इस मामले में स्टे लिया हुआ है.
उन्होंने कहा कि अबूझमाड़ के बहुत सारे परिवार हैं जिनके पास ज़मीन का पट्टा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट की रोक वजह है हम आदिवासियों को पट्टे का वितरण भी नहीं कर पा रहे हैं. अबूझमाड़ में माड़िया जनजाति निवासरत् हैं. मूल रूप से जंगल के मालिक वही हैं. आदिवासी प्रकृति पर आधारित हैं. वे इस बीच एनआरसी को लेकर सवाल खड़े करते हुए मोदी सरकार पर निशाना भी साधते हैं. वे कहत हैं कि आज देश भर में एनआरसी लागू करने की बात कही जा रही है. छत्तीसगढ़ में एनआरसी लागू हुआ तो यहाँ के आदिवासी क्या करेंगे ? उनके पास तो सरकार को दिखाने के लिए कोई काग-जात नहीं है. मंत्री होने के बाद खुद के पास जन्म प्रमाण-पत्र नहीं है, तो क्या वे बाहर कर दिए जाएंगे ? आदिवासियों को अभी इस कानून के बारे में ठीक से पता नहीं अगर जिस पता चल जाएगा तो सबसे बड़ा विरोध आदिवासी ही करेंगे.
समापन सत्र बतौर वक्ता कई विद्वानों अपनी बात कही. जगदलपुर ट्राइबल वेल्फेयर के डॉ. हरीश मरकाम ने कहा कि धर्म, सत्ता, और व्यापार इन तीनों का मूल्याकंन करना जरूरी है. दुनिया में दो प्रकार की व्यवस्था कायम है. एक लिखित और दूसरी मौखिक. आदिवासी पूरी तर मौखिक व्यवस्था में जीते हैं. उनके पास लिखा अधिक कुछ भी नहीं है. उन्होंने कहा कि आदिवासियों को समझने के लिए बुद्धिमता की बल्कि सहजता की जरूरत है. आदिवासी समाज की संस्कृति को जिंदा रख पाएंगे, तभी समाज को जिंदा रख पाएंगे.
बस्तर के आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता माखनलाल शौरी ने कहा कि आदिवासी समुदाय को समझने के लिए उनके रहन-सहन बोली परम्पारा और संस्कृीति को समझना पड़ता है। वे हजारों वर्षों से प्रकृति की गोद नदी, पहाड़ और जंगलों से जुड़े हुए हैं. शास. गुंडाधुर महाविद्यालय कोंडागांव के प्राचार्या डॉ. किरण नुरेटी ने आदिवासियों के जीवन पर आधारित ध्याशन पद्वतियों, मनोवैज्ञानिक चिकित्साप, प्राकृतिक चिकित्सा पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि प्रकृति शक्ति ही सर्वशक्ति मान है. इसलिए प्रकृति का बचाव करना जरूरी है. झारखंड के मानव वैज्ञानिक डॉ. शब्बीर हुसैन ने छत्तीृसगढ़ के आदिवासियों की कुपोषण समस्या पर चिंता व्यक्त किया.