भारत के संविधान को कैसे समझा जाए?- चंद्रशेखर साहू
रायपुर. भारतीय संविधान लागू होने के बाद दुनिया के अलग-अलग संविधानों के साथ तुलनात्मक अध्ययन हुआ है, उस दृष्टि से भी भारत के संविधान का एक विषिष्ट स्थान है और अपेक्षाकृत बड़ा संविधान माना जाता है, इसलिए आमजनों को इसे समझने के लिए कई तरीके बताये जाते हैं, कुछ सरल तरीकों पर भारतीय संविधान दिवस 26 नवम्बर के परिप्रेक्ष्य में यह चर्चा की जा रही है.
दुनिया का हर संविधान या संविधान-नुमा दस्तावेज राजसी रौब-दाब की जबान में ही लिखा जाता है. भारत का संविधान इस मामले में जरा ज्यादा वजनी है क्योंकि इसे राजनैतिक घोषणा के बजाए बिल्कुल एक कानूनी अधिनियम की तरह लिखा गया है. इसलिए संविधान की ठीक समझ के लिए कानून की मोटी-मोटी समझ बना लेना फायदेमंद है. कानून का सरल, मोटा परिचय (सैद्धांतिक) परिचय देने वाली किताबें बहुत कम हैं, हिन्दी में तो बिल्कुल भी नहीं. विधि-विद्यार्थियों के लिए तो हिन्दी में कुछ किताबें मिल जाती हैं लेकिन आम पाठक के लिए लिखी किताबें कार्यकारी पहलुओं का परिचय देने के बजाए म्यूजियम-दर्षन की कमेंटरी के अंदाज में लिखी होती हैं. सिर्फ कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं की छोटी-छोटी पुस्तिकाएं कानून के अलग-अलग आयामों जैसे भारतीय दंड संहिता, सूचना का अधिकार अधिनियम आदि पर उपलब्ध हैं. दुख यह नहीं है कि जनता तक बेंथम, आस्टिन, वेबर, मिल, दुर्खीम, हार्ट, होम्स, और पाऊंड सरीखे विद्वानों के परिचयात्मक देख उपलब्ध नहीं, असली चुनौती तो है जनता को कानून की मूल संकल्पना और आधार से दोबारा परिचय ताकि वह जान सके कि कैसे कानून तय करने का अधिकार उससे छीन कर जानकारों और अधिकारियों ने कब्जा लिया है। इतनी बड़ी आबादी में प्रत्यक्ष-लोकतंत्र होना शायद मुश्किल है और प्रतिनिधिक संस्थाओं को ही खास जिम्मेदारियां उठानी होंगी लेकिन तब भी कानून जनता की साझाा समझ और मान्यताओं से बिल्कुल कैसे कटे हो सकते हैं? वैसे संविधान की सरल समझ के लिए तो कानून और इसकी भाषा के बारे में मोटी-मोटी जानकारी भर काफी है। संविधान की व्याख्या करते हुए कुछ सिद्धांतों का जिक्र बार-बार आता है जिनका मोटे तौर पर ऐसे समझा जा सकता है-
रूल ऑफ लाॅ- शासन किसी भी प्राधिकारी की मनमर्जी से नहीं, लिखे हुए निश्चित नियम-कानून के मुताबिक चलाना होगा, जिनमें बदलाव भी ऐसी सार्वजनिक प्रक्रिया से ही किया जाएगा जो पहले से तय है.
नेचुरल जस्टिस- मानव जीवन और व्यवहार के नैसर्गिक प्रवाह बनाए रखने का आग्रह करने वाले कुछ विधिक सिद्धांतों का संग्रह. (मनमानी मतवाद) आरबिट्रेरी डाॅक्ट्रिन यह है कि सभी विधिक प्रक्रियाएं पूर्व-निष्चित होंगी। निष्पक्षता मतवाद, किसी भी मुद्दे पर पहुंच, पहचार और गैर-जरूरी इतिहास को हटाकर वस्तुनिष्ठ होने का आग्रह है, और यह भी कि सभी पक्षों को अपनी बात रखने का मौका मिले.
लेजिस्लेटिव काॅपिटेंस- विधि-रचना की अधिकारिता, विषय और विस्तार दोनों ही पहलुओं में पूर्व-निर्धारित होनी चाहिए. इस अधिकारिता का बड़ा या पूरा हिस्सा अपने से निचले किसी प्राधिकारी को सौंपा नहीं जा सकता, सिवाए व्यावहारिक लचीलेपन के नजरिए से नियम-तय करने की अधिकारिता के. पूर्वाग्रह यही होगा कि विधायिका ने साफ नीयत से और सक्षमता की सीमा के भीतर काम किया है, जब तक कि इसके विपरीत प्रमाण न हों.
ज्यूडिशियल रिव्यू- कानूनों और इनके तहत किए सभी सरकारी कामों के जायज होने की परीक्षा का न्यायपालिका को अधिकार है. जाहिर है इसके लिए न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यकारी नियंत्रण या प्रभाव से मुक्त होना जरूरी है.
अल्ट्रा वायरेज- अगर किसी कानून को बनाने वाला या कोई सरकारी कार्रवाई करने वाला प्राधिकारी उस विषय या उसके विस्तार के लिए अधिकृत नहीं है तो वह कानून या कार्रवाई अल्ट्र वायरेज (प्राधिकार के परे) करार दी जाती है.
बेसिक स्ट्रक्चर- उच्चतम न्यायालय ने मूल अधिकारों में संषोधन किए जाने के विवाद पर तेरह जजों की बेंच के बहुमत फैसले में माना है कि कुछ ऐसी व्यवस्थाएं और गुण हैं जिनको संविधान की ’’मूल संरचना’’ हिस्सा होने की वजह से किसी सूरत में (संसद द्वारा) बदला नहीं जा सकता.
मेलाफाईड- बदनीयत। अगर बताया गया उद्देष्य सच्चा-सही है तो बोनााईड.
कलरेबल लेजिस्लेशन– कानून बनाने की (विधायी) शक्ति का बदनीयत इस्तेमाल.
पिथ एंड सबस्टेंस- किसी कानून को बनाने की विधायी शक्ति सातवीं अनुसूची के किस मद से आई है यह परीक्षा कानून के सिर्फ नाम, शब्दों या बाहरी रूप पर नहीं बल्कि उसके असली प्रभाव और मूल सार पर निर्भर करेगी.
सिविरेबिलिटी- किसी कानून को पूरा का पूरा अल्ट्र वायरेज घोषित करने के बजाए न्यायपालिका की कोशिश होती है कि उसके बदनीयत हिस्से को जिस हद तक अलग किया जा सकता है, वहां तक ही असंवैधानिक घोषित किया जाएं.
ड्यू प्रोसेस- भारतीय संविधान ने नागरिक अधिकारों को सीमित करने के लिए (विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया) होने भर की शर्त रखी थी. उच्चतम न्यायालय ने ईमरजेंसी के बाद व्याख्या दी कि सिर्फ ऐसा कानून बनाना भर काफी नहीं, वह कानून उचित प्रक्रिया से यानी सुनिश्चित और निष्पक्ष तरीके से बना होना चाहिए.
श्रीजनेबल क्लासीफिकेशन- समतुल्य लोगों से असमान व्यवहार करना और असमतुल्य लोगों से समान व्यवहार करना अन्याय है. इस सिद्धांत के दूसरे हिस्से के जोर से कहा जा सकता है कि उचित आधार हो तो कानूनी मामलों में लोगों में विभेद किया जा सकता है.
परपजिव/प्रोग्रेसिव इंटरप्रेटेशन- प्रगतिशील अन्वय. आम तौर पर कानून के शब्दों का अन्वय करने का ’गोल्डन रूल’ है कि उन शब्दों के सामान्य अर्थ लिए जाएं. लेकिन संविधान का अन्वय करते हुए आशा की जाती है कि सामयिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए शब्दों के व्यापक स्तिार का अर्थ लिया जाए.
हार्मोनियस कंस्ट्रक्षन- अगर कानून या संविधान के समान आधार/शक्ति वाले दो या अधिक प्रावधानों में विरोध हो तो कोई ऐसा अन्वय करने की आखिर तक कोशिश की जाती है जिससे सभी प्रावधानों को बचाया जा सकें.
काॅमन लाॅ- अंग्रेजी निवायत का इंतजाम जिसमें सभी स्तर पर अदालतें एक ही संविधान और तकरीबन एकसार कानूनों के तहत काम करती है कि पुराने फैसलों की अब तक चली आई धारा को तोड़ने से बचा जाए जब तक न्याय सुनिश्चित करने के लिए ऐसा करने के सिवा कोई रास्ता न हों.
संविधान को कानून के चरित्र से बचाना शायद मुमकिन नहीं इसलिए सब के लिए कानून की मोटी जानकारी हासिल करने की कोशिश ही ठीक सलाह है. लेकिन लोकतंत्र में जनता की यह भी जिद होनी चाहिए कि इस राजनैतिक यंत्र को कानूनी यंत्र बना दिए जाने का भरसक विरोध जारी रहे. इस समझ के साथ बढ़ने पर दिखेगा कि कानून असल में आत्म-अनुषासन का ही सामाजिक स्वरूप है.
परिवार, विद्यालय, काॅलोनी- गांव हर समूह के भ्ज्ञीतर सदस्यों के लिए व्यवहार के कुछ नियम तो होते ही हैं. क्या करना है और क्या नहीं करना है बताने वाले सभी नियम-कायदे जिन को लागू करराने के लिए सामूहिक-सत्ता बल से व्यवस्था करती है उनको कानून कहते हैं. जाहिर सी बात है कि कानून पूरे समूह के भले के लिए बने हैं फिर भी अक्सर ये बात भुला कर निजी सुविधा या फायदे के लिए इनको तोड़ने की कोशिश की जाती है. कई बार मजबूरी में भी लोग कानूनों का उल्लंघन कर बैठते हैं. पकड़े जाने पर सजा से बचने के लिए सबसे पहला बहाना यही बनाया जाता है कि कानून मालूम नहीं था या कानून का यह मतलब समझ में नहीं आया. यहां से शुरूआत होती है कानून के शब्दों को अपनी स्थिति-सुविधा के हिसाब से तोड़-मरोड़ कर उसका मतलब निकालने की.
परिवार, विद्यालय, काॅलोनी-गांव तक समूह के स्तर पर तो नियम बनाने वाले बड़े और जिम्मेदार लोग डांट-फटकार कर नियम-कानून का मतलब फिर से साफ समझा देते हैं. राज्य या देष के स्तर पर जबकि सार्वभौम-सत्ता की विधायिका व्यक्ति/समुदाय से दूर बैठती है और जिनी समझाईष नहीं दे सकती वहां यह जिम्मेदारी लिखित कानून पर आ जाती है. ध्यान दीजिए कि परिचित लोग जब बात करते हैं तो उस संचार में भाषा के शब्दों के अलावा ढेर सारी पारस्परिक/पारंपरिक अनकही जानकारी/सूचना स्वाभाविक तौर पर शामिल होती है. अपरिचित लोगों के बहुत बड़े समुदाय के लिए काचयदा-कानून लिखना हो तो बताने वाली बात के जितने भी सीधे-आड़े हातात मुमकिन हैं उन सबको कानून की भाषा में समेटना पड़ता है. लगातार बदलते प्राधिकारियों की सीमायें ताड़ने की आदत पर लगाम रखना ही संविधान का मक्सद है इसलिए कानूनी अधिनियम की तरह इस में हर पहलू के रेषे अलग-अलग कर के लिखा जाता है ताकि कोषिष करने पर भी कोई इसका अनुचित या अनचाहा मतलब न निकाल सके.
भारत का संविधान बनाने में सीधे तौर पर लगे तकरीबन सारे ही लोग वकील या बैरिस्टर थे इसलिए यह एक राजनैतिक घोषणा के बजाए कानूनी अधिनियम की तरह लिखा गया है (अनुच्छेद- 366, 367, 372, 393-5)। यही वजह है कि संविधान की भाषा जटिल सी लगती है. लेकिन एक बार जब आप कानूनी भाषा का चरित्र समझ कर और संविधान की संरचना और संकल्पना पर पकड़ बना कर पढ़ेंगे तो इसकी भाषा में नहीं अटकेंगे. ध्यान दीजिए कि जटिल से जटिल अनुच्छेद भी मिलते-जुलते छोटे वाक्यांशों से बना है जो कि एक-दो शब्दों के बदलाव के साथ दुबारा-तिबारा इस्तेमाल हो रहे हैं.
ऐसा उस प्रावधान के जरूरी पहलुओं को समेटने की कोशिश में किया जाता है ताकि प्रावधान का कोई अनचाहा मतलब न निकाला जा सके. भारत के संविधान में कई विदेशी संविधानों की छाया होने की वजह से भाषा पर और भी जोर इस लिहाज से आया है कि साफ किया जा सके कि किसका कौन सा पहलू शामिल किया गया है और कौन सा नहीं. आम पाठक को संविधान पढ़ते हुए इन पचड़ों में पड़ने की कोई खास जरूरत नहीं. शुरूआत में बस देखिए कि किसी भी अनुच्छेद या वाक्य के लिखने का पहला उद्देश्य क्या है, उसी को पकड़िए और आगे बढ़ जाइए.
किताब हटा कर सोचेंगे तो अपने आप दिखने लगेगा जैसे किसी भी उद्देष्य को लेकर किस-किस तरह के हालात बन सकते हैं. उलझनें कम करने के लिए इन सभी तरह के हालात के लिए कोई न कोई निर्देश या संकेत प्रावधान में शामिल करना जरूरी है, दूसरे दौर में हर अनुच्छेद को गौर से पुूरा पढ़ेंगे तो ज्यादा बेहतर समझ आएगा. कुछ समय बाद फिर देखेंगे तो सब कुछ पानी की तरह साफ हो जाएगा.